Friday, June 15, 2018

ख्वाब बुनता हूँ सपनों का
ओझल हो जाती हैं कल्पनाएँ
दर पे दर, कड़ी दर कड़ी
फिर से उठती हैं लहरें.
हवाओं का अफसाना है
झोका है पतझड़ के बाद का।
ख्वाब बुनता हूँ सपनों का......

तरूणाई है कोमलता का
हिलकोरे मारती हुई मन की आवाज
दरख्वास्त दे रही है
मैं आ गई, मैं आ गई
लेकिन आवारा दिल
सम्भलता नहीं।
ख्वाब बुनता हूँ सपनों का........

इसे समझाऊं कैसे बुझ दिल
जो इस जिगर के करीब है ना
कुछ कर गुजरने का जज्बा लेकर
इस उधेड़बुन में अपने को
अकेला पाता हूं।
ख्वाब बुनता हूँ सपनों का....

देखता हूँ कि कुछ गमें- भूले लोग
जाते हुए तरून्नुम की आवाज आती है
तेरे रूख्श के अफसाने में
यही एक आवाज आती है कि
ख्वाब बुनता हूं सपनों का.......

उम्र दर उम्र कोई शिकवा नहीं
कुछ बड़ा न हो पाया इसका मलाल है
आधी बीत गई, समझने में कि
मैं कहां और क्या हूं
जब समझ आया ये वाकया
तो अहसास हुआ आधी पाने में
ख्वाब बुनता हूँ सपनों का......

लेकिन सही वक्त जिंदगी अहसास दिलती है
कि आए तो यूँ ही नहीं जाना है
कुछ कर गुजरना है
कुछ अपने लिए तो कुछ अपनो के लिए
जिन्होंने बड़ी शौक पाला है एक जिंदगी के लिए
तो चले जुट जाए ख्वाब-ए-जिंदगी की पाने में
ख्वाब बुनता हूँ सपनों का.......

दर आभार...अनकहीं बातें
दिनांक- 05.08.2017

Friday, October 27, 2017

एक आस लगी है मन को
जब दिन आएगा दिवाली का
ले जाएंगे सब टोकरियां दीपों की
तब लोग दीप जलाएंगे दीवाली का।

घर में माहौल होगा खुशनुमा
सब लोग मिलेंगे आपसे में
तब भूल जाएंगे दुःख के दिन
जब उस रोज दीप जलांएगे दीवाली का।

जब दूर कहीं होगा कोई
याद आएगा अपने घरवाली का
तब वह भी अपनो का याद कर
घर में दीपक जलाएंगा दीवाली का।

मन में चाहत होगी कुछ करने की
तन में अंगड़ाई आएगी कुछ कर गुजरने की
तब होगी शुरूआत एक नए मंजिल की
जब मिल कर हम लोग दीपक जलाएंगे दीवाली का।

साभार

Friday, October 13, 2017


आ गये बागों-बहार से........



आ गये बागोें-बहार से
तन्हाई को छोेड़कर
मन को मोड़कर
भविष्य की उचाईयों से
जरा संभलकर चलना
कहीं छूट न जाये
वर्षों पाले हुए
बगीचे में पौधा
मन की अंगड़ाईयों को
बहला दो कि अभी बाकी है
बेपर्दा बुनियाद जवानी की
जिसमें कुछ जज्बें बाकी हैं
उधेड़बुन पड़ी जिंदगी
अभी तो लगता है कि
जैसे कल निकले हों
बाँस की कोपली से
बढ़ने की चाहत व तूफानी जज्ब़ा
कभी किसी का मोहताज नहीं होता
चाहें जितनी रूखसतें आएं जिंदगी में
अपना जख्म़ नहीं दिखाता
मन भी कुछ ओतप्रोत से दिखता है
गर्माहट बहुत है संसार में लेकिन
करें तो क्या करें नहीं बल्कि करना ही है
जीवन में खुशहाली व शुकूं के लिए
कोयल की कूक से ज्वाला सी जलती है
फिर भी मन को न मारिए
कुछ गरमाहट लाती है कभी-कभी
जिसका दीदार चाँद की शीतलता से भी ज्यादा होता है
चलने दो ज़रा-ज़रा अभी मकां बाकी है।

साभार........अनकहीं बातें

Tuesday, October 10, 2017

क्यूं गुस्सा इतना करती हो,
क्यूं हर बातों में अपनी ही बातें करती हो,
बतलाओं मुझे
एक दिन तुम्हें भी सोचना पड़ेगा
मिलने के लिए मुझसे
समय मांगकर बिना पूंछे नहीं।
क्यूं इतना बरख्श है तुम्हें सारी बातों में,
क्यूं इतना इठलाती है हर मुद्दे पर
तुम्हें पता नहीं है कि समय
किसी का मोहताज नहीं होता
कब तुम्हारे लिए कोई बया आ खड़ी हो,
और फिर दरवाजे न खुले अपनो के लिए
जरा समझो कि सच है ये जिंदगी की
कोई रूका नहीं तो तुम्हारी क्या औकात है।
साभार, धन्यवाद

Monday, October 9, 2017

           जीवन परिस्थितियों का गुत्थी द्वारा निकला परिणाम है जिसके आधार पर हम निर्धारित मानकों
एवं अनुभवों के आधार पर किसी भी रास्ते को चुनते हैं। हाँ, ये बात अलग है कि कुछ इसमें सफल होते हैं और कुछ असफल होकर भी सफलता का जीवन गाथा गाते हैं। यदि हम सफलता का उल्लेख करें तो यह पाएंगे कि जो वस्तु या यथास्थिति हमारे अनुकूल होती है उसे हम सफलता का मानक मान लेते है जबकि किसी भी व्यक्ति या वस्तुस्थिति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह उसके लिए कितना तर्कसंगत प्रतीत होती है।
           कभी-कभी जीवन में कुछ अनजान सा घटित हो जाता है जिसका प्रभाव कुछ समय के लिए मानस पटल पर अंकित हो जाता है। जिसकी अनुभूति समय-समय पर यह बताती फिरती है कि कुछ तुमने लीक से हटकर चलने का प्रयास किया है। हम जीवन में बहुत से किरदार निभाते हैं और हर किरदार की अपनी अहमियत होती है, जो किसी से बयां नहीं की जा सकती। हम सभी परिस्थितियों के निर्माता स्वंय हैं और उससे उपजे परिणामों को भुगतने के लिए भुक्तभोगी बनते जाते हैं और कुछ समय बाद हमें यह अहसास होता है कि नहीं मैंने कुछ ऐसे कार्य कर दिए जो नहीं करने चाहिए। जनाब़, अब क्या होगा जब चिड़िया चुग गई खेत।
          खैर, कोई बात नहीं जीवन के यूं ही रंग में रंगते जाइए और खुशहाल रहकर अपनी परिस्थितियों एवं आवरण को सकारात्मक करने का प्रयास करें एवं उसमें कुछ बेहतरी करने का प्रयास करें।
          धन्यवाद, सादर अनकहीं बातें।

Wednesday, September 27, 2017

मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले
तू क्यूं चलता है, चलता है अकेले
सारी दुनिया चलाचल लेकिन तू एकला चला रे,
मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले।।

क्या पाया तूं इस जहाँ में
क्या खोया इस जहाँ से
क्या पाने की सिद्दत लगाये बैठा रे
मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले।।

कितनी मासूमियत है कुछ पाने की
कितनी सहूलियत कुछ कर जाने की 
लेकिन तुझमें हिम्मत नहीं किसी के साथ जाने की
मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले।।

तुझे गम नहीं है कुछ खोने की
तुझे आस लगी है कुछ पाने की
इतनी मुद्दतों से मिली है तो चला-चल
मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले।।

साभार....अनकहीं बातें