मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले
तू क्यूं चलता है, चलता है अकेले
सारी दुनिया चलाचल लेकिन तू एकला चला रे,
मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले।।
क्या पाया तूं इस जहाँ में
क्या खोया इस जहाँ से
क्या पाने की सिद्दत लगाये बैठा रे
मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले।।
कितनी मासूमियत है कुछ पाने की
कितनी सहूलियत कुछ कर जाने की
लेकिन तुझमें हिम्मत नहीं किसी के साथ जाने की
मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले।।
तुझे गम नहीं है कुछ खोने की
तुझे आस लगी है कुछ पाने की
इतनी मुद्दतों से मिली है तो चला-चल
मन क्यूं भटकता है, भटकता है अकेले।।
साभार....अनकहीं बातें
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